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संस्कार एवं शिक्षा एक दूसरे के पूरक

culture and education complement each other
culture and education complement each other

संस्कार एवं शिक्षा एक दूसरे के पूरक

सांस्कृतिक मूल्यों के विकास एवं विस्तार के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण माध्यम है, जिसके जरिए मानव अपने अनुभूतिजन्य अनुभवों को समाज एवं उसकी नई पीढ़ी में संचारित करता है। ऋषि-मुनि जो शिक्षा देते थे, वह उनका समग्र ज्ञान था। वे संस्कृति के रक्षकों का निर्माण करते थे। कर्म से लेकर धर्म तक, नैतिक शिक्षा से चरित्र निर्माण तक, शास्त्रार्थ से युद्ध कौशल तक, व्यवहार से आचरण तक की शिक्षा दी जाती थी। अच्छा इन्सान बनने, मानवीय गुणों को अपनाकर समाज एवं देश की सेवा करने, सहयोग की भावना विकसित करने, सबसे हिल-मिल कर रहने की शिक्षा दी जाती थी।

शिक्षा से मानव में चिंतन, चरित्र, व्यवहार, दृष्टिकोण को आदर्शोन्मुख किया जाता है। शिक्षा मनुष्य में सद्भावना एवं सद्प्रवृत्ति को बढ़ाती है। शिक्षा सुसंस्कृत समाज की आधारशिला है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति में बौद्धिक जागृति होती है और इससे वह नवीन सांस्कृतिक मूल्यों की रचना करता है। शिक्षा बुराई से अच्छाई की ओर, हीनता से उच्चता की ओर, असंभव से संभव की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। यही जीवन मूल्य है, यही संस्कृति है, जिसका निर्माण शिक्षा से होता है। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ‘उचित प्रकार की शिक्षा का अर्थ है, प्रज्ञा को जागृत करना तथा समन्वित जीवन को पोषित करना और केवल ऐसी ही शिक्षा एक नवीन संस्कृति तथा शान्तिमय विश्व की स्थापना कर सकेगी।

यदि शिक्षा-दीक्षा उचित वातावरण में हुई हो, तो व्यक्ति का जीवन मर्यादित, संयमित, अनुशासित, नैतिक गुणों से परिपूर्ण व श्रेष्ठ चारित्रिक गुणों से युक्त होता है। आवश्यकता है अपनी संस्कृति को पहचानने की, अपने अतीत के प्रति गौरव का अनुभव करने की, भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न करने की, युवाओं में राष्ट्र के प्रति प्रेम, राष्ट्रभक्ति, विश्वास और राष्ट्र के पुन:निर्माण का पथ प्रशस्त करने की। इसे प्राप्त करने में संस्कार आधारित शिक्षा ही सक्षम है।