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अधिकारियों के निरसता से भारतीय बच्चे अपने हक़ के सिनेमा से रह जाते हैं वंचित

अधिकारियों के निरसता से भारतीय बच्चे अपने हक़ के सिनेमा से रह जाते हैं वंचित
अधिकारियों के निरसता से भारतीय बच्चे अपने हक़ के सिनेमा से रह जाते हैं वंचित

अधिकारियों के निरसता से भारतीय बच्चे अपने हक़ के सिनेमा से रह जाते हैं वंचित

बच्चों के लिए फ़िल्में बनती तो है, लेकिन डब्बा बंद:
जी हाँ! सरकारी पेंच ही कुछ ऐसा होता है कि भारतीय बच्चे अपने हक़ के सिनेमा से वंचित रह जाते हैं। जबकि उनके नाम पर करोड़ों की लागत से लगभग हर साल फ़िल्में बनती ज़रूर है। दरअसल भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत 1955 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के विशेष पहल पर भारत में बाल चलचित्र समिति की स्थापना हुई थी। दरअसल, पंडित नेहरू ने सीएफएसआई की स्थापना इस उम्मीद से की थी ताकि बच्चों के लिए स्वदेशी एंव विशेष सिनेमा से उनकी रचनात्मकता, करुणा, और महत्वपूर्ण सोच को प्रोत्साहित किया जा सके। वह सीएफएसआई आज भी सक्रिय तो है, लेकिन सिर्फ़ इतना भर कि सरकार के पास जमा पब्लिक फ़ंड को बाल मनोरंजन के नाम पर सिर्फ़ ख़र्चा जा सके बच्चों तक उसकी सार्थकता पहुँचे बिना। कुछेक फ़िल्म महोत्सवों को छोड़ दें तो सीएफएसआई को बने 65 साल बाद भी भारत के बच्चों को उसकी भूमिक के बारे में पता तक नहीं है। कारण बहुत सीधा है कि सीएफएसआई द्वारा निर्मित 99 प्रतिशत फ़िल्में रिलीज़ ही नहीं होती है। अधिकांश फ़िल्में डब्बों और फ़ाइलों में बंद धूल फाँक रही होती है।

फ़िल्मों की लागत कितनी होती है?
फ़िल्में बच्चों के लिए ज़रूर होती है लेकिन लागत बड़ों जैसी ही होती है। एक फ़ीचर फ़िल्म की लगात लगभग 2 से 4 करोड़ तक होती है।

फ़िल्म ‘गौरु’ के निर्देशक रामकिशन का अनुभव :
सीएफएसआई द्वारा निर्मित फ़ीचर फ़िल्म गौरु का निर्देशन कर चुके रामकिशन चोयाल कहते हैं कि मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि बाल चलचित्र समिति मेरी पहली फ़ीचर फ़िल्म का निर्माता है। 2017 में गौरु चायना इंटरनेशनल चिल्ड्रेन्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सेलेक्ट हुआ। उस फ़ेस्टिवल में गौरु एक एकमात्र फ़िल्म थी जिसे दो दो पुरस्कार मिले। फ़िल्म ने ख़ूब निस्छ्ल प्रशंसा बटोरी। उन्हें इतनी अच्छी लगी कि चीन के फ़िल्म वितरकों ने वहाँ रिलीज़ करने का प्रस्ताव रखा। समिति ने बड़े आराम से उसे ठुकरा दिया। भारत में ओटीटी प्लेटफ़ोर्म नेटफलिक्स का प्रस्ताव मिला। उसे भी टाल दिया गया। ज़ी-5 ने भी रुचि दिखाई लेकिन सीएफएसआई सोया रहा। तीन बड़े बड़े प्रस्ताव ठुकराने के बाद मुझे लगा कि मेरी फ़िल्म भारत में किसी ने देखी ही नहीं। इस रवैए से कोई देख भी नहीं पाएगा। बहुत प्रयास करने के बाद मैं अपने निजी ख़र्च और व्यक्तिगत पहचान से जयपुर के तीन थिएटर में प्रदर्शन करवा पाया। सिर्फ़ इसलिए कि कम से कम मेरे शहर के बच्चे मेरी फ़िल्म को देख ले। फ़िल्म को उम्मीद से बेहतर प्यार मिला। मुझे दुःख है कि फ़िल्म बच्चों के जिस मानसिकता पर आधारित है हम उसे बच्चों की बड़ी दुनिया तक नहीं पहुँचाया पाए। जिसमें सीएफएसआई की नीरसता ज़िम्मेदार है।

हलिया निर्मित फ़िल्म चिडियाखाना खा रही है टप्पा :
सीएफएसआई द्वारा हलिया निर्मित फ़ीचर फ़िल्म ‘चिड़ियाखाना’ बन कर तैयार है। फ़िल्म का निर्देशन दिल दोस्ती एटसेट्रा और ‘इसक’ फ़ेम मनीष तिवारी ने किया है। फ़िल्मकार रिलीज़ चाहते हैं लेकिन सीएफएसआई के अधिकारियों के निजी निर्णयों में टप्पा खा रही है। सीएफएसआई की इस रवैए से अब तक दर्जनों फ़ीचर फ़िल्मों का डब्बा बंद हो चुका है। चिड़ियाखाना का भी भगवान मालिक है।

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Ankit Piyush

Ankit Piyush is the Editor in Chief at BhojpuriMedia. Ankit Piyush loves to Read Book and He also loves to do Social Works. You can Follow him on facebook @ankit.piyush18 or follow him on instagram @ankitpiyush.

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